Thursday, August 14, 2014

हम कितने आज़ाद....?

वाक़या कुछ यूं है कि ऑफिस से लौटते वक्त एक आठ-दस साल का बच्चा हाथों में तिरंगा लिये उसे बेंचने मेरे पास आकर रुका। बमुश्किल तीस-पैंतीस सेकेंड के लिये ट्रेफिक सिग्नल पर उस वक्त खड़े हुए मैं बड़े असमंजस में था कि झंडा लिया जाये या नहीं...पर मेरी कार के फ्रंट में चिपकाने के लिये उस तिरंगे की कीमत जो उस बच्चे ने मुझे तकरीबन बीस रुपये बताई थी काफी ज्यादा लगी और मैं उसका पंद्रह रुपये मूल्य लगाकर आगे बढ़ गया। फिर सोचा कि यार पांच रुपये की ही तो बात थी...उस तिरंगे को अपनी गाड़ी पे लगाकर मैं अपने देशभक्त होने का प्रमाण तो दे ही सकता था..और उस बच्चे को मिले उन पैसों से उसे एक वक्त का भोजन मिल जाता। लेकिन इन छद्म संवेदनशील जज़्बातों ने बड़ी देर से मेरी रूह पर दस्तक दी।

बात सिर्फ मेरी या किसी एक व्यक्ति की नहीं हैं..ऐसी सतही संवेदनाएं मुझ जैसे सैंकड़ो के मन में रहती होंगी। बात है उस सड़सठ सालों से चली आ रही तथाकथित आजाद व्यवस्था की जिसके चलते आज भी वो बच्चे जिन्हें बस्ता टांगे स्कूल जाना चाहिये वो फुटपाथों या चौराहों पर कुछ ऐसे ही तिरंगा, अखबार या कुछ ऐसी ही दूसरी चीज़ें बेंचते नज़र आ रहे हैं। सवाल उठता है उन दर्जनभर पंचवर्षीय योजनाओं पर जो आज भी प्रत्येक भारतीय की शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और भोजन सुनिश्चित नहीं कर पा रहीं हैं। सवाल है उन तमाम संसदीय और न्यायालयीन नियमों-अधिनियमों से, जिसके चलते संविधान की प्रस्तावना में वर्णित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय आम आदमी से कोसों दूर है और यही वजह है कि शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शुमार किये जाने के बावजूद तिरंगा, फुटपाथ पर घूम रहे बच्चों के महज़ हाथों में लहलहा रहा है जबकि उस तिरंगे को उन बच्चों के ज़हन का हिस्सा बनना था। जो कि सिर्फ शिक्षा से संभव है।

ये एक वाक़या तो महज़ एक मिशाल है...आजाद भारत की गुलाम तस्वीर का ज़िक्र कर पाना बहुत मुश्किल है। कहने को समाजवाद का चोगा ओड़ी, हमारी व्यवस्था में जितनी आर्थिक खाई देखी जा सकती है उतनी शायद ही किसी दूसरी विकासशील अर्थव्यवस्था में होगी। इस आर्थिक खाई का आलम कुछ ऐसा है कि देश का एक वर्ग अमेरिका, यूके, जापान के तमाम विकास को बौना साबित कर रहा है तो दूसरी ओर एक विशाल वर्ग ऐसा भी कालीन के नीचे पसरा पड़ा है जिसकी हालत सोमालिया, इथोपिया, कांगो सरीखे अफ्रीके देशों से गयी बीती है। एक वर्ग ऐसा है जो किसी मल्टीप्लेक्स में बड़े आराम से साढ़े तीन सौ का टिकट ले तीन घंटे का इंटरटेनमेंट खरीद रहा है तो उसी मल्टीप्लेक्स के बाहर खड़ी एक औरत अपनी गोद में टांगे उस बच्चे के लिये एक वक्त के भोजन के लिये साढ़े तीन रुपये की गुहार कर रही है।

ऐसे सैंकड़ो दृश्यों का ज़िक्र किया जा सकता है पर उन सबको बताना मेरा मक़सद नहीं। मैं सिर्फ लाचार भारत की इस भौतिक गुलामी की बात नहीं करना चाहता बल्कि समृद्ध इंडिया की उस मानसिक गुलामी को भी बयांं करना चाहता हूँ जिसके चलते ही इस भौतिक परतंत्रता का आलम फैला हुआ है। जी हाँ समृद्ध इंडिया! ऑलीशान गाड़ियों में घूमता, पॉश कालोनियों में करोड़ो-अरबों के बंगलों में रहने वाला, ब्रांडेड कपड़े और ज्वेलरी अपने बदन पे चढ़ाने वाला, लाखों के टूर पैकेज ले सिंगापुर-स्विटज़रलैण्ड घूमने वाला वही समृद्ध इंडिया जिसके अन्याय और सबकुछ हड़प लेने की हवसी प्रवृत्ति का ही नतीजा है लाचार भारत। इस इंडिया ने अपनी तमाम समृद्धि उन झूठी कसमों के ज़रिये हासिल की हैं जिन कसमों में ये लाचार भारत की सूरत बदलने की बात करते हैं। जी हाँ कभी नेता बनकर, कभी कोई प्रशासनिक अधिकारी बनकर, कभी डॉक्टर, इंजीनियर या उद्योगपति बनकर ये तमाम व्हाइट कॉलर लोग देश के हालात बदलने के लिये ही तो निकले थे पर इनकी स्वार्थि वृत्तियों और बस खुद को संवारने की चाहत ने आज गरीबी रेखा के नीचे लगभग 70 करोड़ लोगों को धकेल दिया है और जो इस रेखा से ऊपर रहने वाला मध्यमवर्ग है उसकी हालत भी कोई बहुत सम्मानीय नहीं है। परिस्थितियों के थपेड़े उसे भी पंगु ही बनाये हुये हैं।

इसे मानसिक गुलामी नहीं तो और क्या कहेंगे जहाँ प्रतिभा और पैसे का उपयोग बस खुद के उत्थान के लिये ही किया जाता हो...जहाँ पर्यावरण को बेइंतहा नुकसान अपने पैसे कमाने के साधनों को और पुख़्ता करने के लिये किया जाता हो..जहाँ रस्मों-रिवाज़ों के नाम पर धर्मस्थलों, मंदिर-मस्ज़िदों में करोड़ो चढ़ाया जाता हो लेकिन एक जीते-जागते इंसान की बेहतरी के लिये कोई उपक्रम नहीं है। डॉक्टर, इंजीनियर या व्यवसायी बन हर युवा अपने देश के हालात बदलने की दिशा में योगदान देने के बजाय विदेशों में मोटे पैकेज की नौकरी की चाहत पालता है। अपने बहुत थोड़े से जीवन को हर तरह से सिर्फ धन का गिरवी रखना क्या मानसिक दिवालियापन नहीं है। देश के उत्थान की बातें जिस दिन हमारी जुबानी मंशा न रहकर, ज़हन की आरजू बन जायेगी सही मायने में उस ही दिन हम आजाद होंगे। नहीं तो मुझ जैसे ही तमाम भारतीय पंद्रह रुपये का  कोई तिरंगा खरीद अपने घर या लाखों की कार पर चस्पा कर खुद की देशभक्ति को प्रमाणित करते रहेंगे और अपनी आज़ादी का जश्न युंही चलता रहेगा। या फिर व्हाट्सएप्प और फेसबुक की प्रोफाइल पिक्चर को तीन रंगों से रोशन कर देंगे..पर ज़हन उस तिरंगे के असल मायनों को कभी साकार नहीं कर पायेगा।

खैर...उम्मीद है हालात बदलेंगे, उम्मीद है हम आजाद होंगे..रूह से भी और ज़िस्म से भी। पर उसके लिये हर भारतीय को एक पत्थर तो तबीयत से उछालना ही होगा..एक दीपक तो शिद्दत से जलाना ही होगा। वो दिन जरूर आयेगा जब उस उछाले हुए पत्थर की चोट गुलामी के शीशों को तोड़ेगी और उस दीपक से सालों की तमस मिटेगी। पर तब तक........................................

चलो बाहर चलते हैं आजादी का जश्न मनाया जा रहा है.....और हम भी कुछ नारे लगाते हैं, हम भी कुछ गीत गुनगुनाते हैं.......जनगणमन अधिनायक जय है, भारत भाग्य विधाता।

Sunday, August 3, 2014

एक बदसूरत लड़की का ख़त

(ये पोस्ट मेरी एक कहानी "वो बदसूरत लड़की" का एक हिस्सा है..जिसमें उस लड़की के रुहानी हालातों को बयाँ करने की कोशिश की है जो जमाने के तथाकथित सौंदर्य के पैमानों पर खरी नहीं उतरती...और समाज में सौंदर्य के लिये लालायित लोगों को देख, जो टीस उसके मन में पैदा होती है उसे अपने लफ्ज़ों में लपेट अपनी माँ को भेजने की कोशिश करती है। हालांकि एक पुरुष होते हुए किसी नारी के मन को समझ पाना आसान नहीं है लेकिन फिर भी मैंने एक नादान कोशिश ज़रूर की है-)

माँ..अब बस तुम्हारा नाम जुवां पर लाकर और आँखें बंद कर तुम्हारी तस्वीर देखकर ही मुझे सुकून मिलता है। वरना इस दुनिया के रवैये ने तो वो सारी खुशियां मुझसे छीन ली हैं जो खुशियां एक जवां लड़की को उसकी हसरतों के पूरा होने से मिलती हैं क्योंकि मेरी सूरत किसी भी तरह की उन ख्वाहिशों को पालने की इज़ाजत नहीं देती..जो ख्वाहिशें एक जवां लड़की की होनी चाहिये...और अब तो मैं जवां भी नहीं रही, उनतीस साल की लड़की भला कहाँ जवां मानी जाती है। एक नारी के सौंदर्य की एक्सपायरी डेट तो तय कर रखी है न इस दुनिया ने।

माँ..वैसे आपसे मैं ये सब क्यूं बोलू..अब तो आप भी ये समझ चुकी हो कि मैं एक बदसूरत लड़की हूँ...यदि सुंदर होती तो अब तक घर में थोड़ी बैठी रहती। अब ये बात आप और पापा मुझसे कहें या नहीं पर सच तो यही है न..जो दुनिया ने आपको बताया है। हाँ मैं मानती हूँ कि पापा के लिये मैं आज भी किसी परी से कम नहीं और इसलिये मेरी शादी के लिये क्या कुछ नहीं किया उन्होंने...पर अब मेरी वजह से उनके माथे पर पड़ने वाली सलवटें नहीं देखी जाती। वो ये मान क्युं नहीं लेते कि मेरे लिये कोई राजकुमार नहीं आयेगा...उनकी बेटी ऐसे किसी अरमान को पूरा नहीं कर सकती जो एक लड़की का पिता देखा करता है। मुझे पता है माँ जब दो महीने पहले हमारे पड़ोस वाली वो सुनीता चाची की बेटी, जो मुझसे उम्र में लगभग छह साल छोटी है उसका ब्याह हुआ तो आपको कैसा लगा होगा..और वो नटखट सी पिंकी, जिसे हम बचपन में अपने घर में खिलाया करते थे वो भी तो दुबई जाकर सैटल हो गई है न...एक एक कर मेरी सब सहेलियां और वो लड़कियां भी जो मुझे दीदी-दीदी कहकर बुलाती थी सभी तो शादी करके चली गई। हर शादी को देख पापा अपनी बेटी के लिये भी किसी ऐसे ही राजकुमार के सपने संजोते थे पर माँ यहाँ तो सिर्फ चमड़ी की कीमत है...और मुझे वो नहीं मिली है।

बचपन में जब टीवी पर वो फेयर एंड लवली और विको टरमरिक क्रीम का एड देखती थी तो दिल में हर बार उम्मीद का संचार होता था पर वो सब झूठे हैं मां..मैंने सब कुछ किया पर मेरा ये काला रंंग जाता ही नहीं है। लड़कियों का रंग गोरा होना इतना ज़रूरी क्युं है मां? एक बात और बताना है आपको..वो जब कॉलेज में मेरी सहेलियां श्रद्धा और सपना अपने-अपने ब्वायफ्रेंड के साथ घूमती थी न तो मेरा भी मन होता था कि मुझे भी कोई ऐसे चाहे, फोन करे, मेरी फिक्र करे, मुझे घुमाये और आपसे छुप-छुप के मैं भी किसी से प्यार करूं...पर ऐसा कभी न हुआ मेरे साथ। मेरे साथ पढ़ने वाले लड़कों ने सहानुभूति तो दिखाई मुझपे, पर साथ कोई नहीं रहा। और माँ पता है न आपको वो श्रद्धा और सपना कभी पढ़ने में भी अच्छी नहींं थी और वो अपने ब्वायफ्रेंड से झूठ बोल-बोलकर धोखा भी देती थी..लेकिन फिर भी लड़के उनको ही पसंद करते थे। मैं पढ़ने में तेज थी और झूठ बोलना, किसी का दिल दुखाना तो आपने सिखाया ही नहीं है मुझे, फिर भी कभी किसी ने पसंद नहीं किया। हाँ सब लड़के एक्साम के टाइम पे मेरी हेल्प लेने ज़रूर आते थे..और थैंक्स भी बोलते थे पर मुझे किसी ने प्यार के काबिल नहीं समझा। लड़की की सूरत के अलावा क्या कोई और चीज़ मायने नहीं रखती?

और ये भी तो आपको पता ही है न कि कॉलेज टॉप करने के बाद भी मुझे नौकरी ढूंढने में कितनी परेशानी झेलना पड़ी। और वो हरमीत अंकल की जस्सी जिसका हरबार किसी न किसी सब्जेक्ट में बैक लगता था आज वो पता नहीं कैसे मुम्बई की एक कंपनी की सीईओ बन गई। जबकि मेरे काम से मेरी सूरत का कोई लेना देना नहीं था..मैंने न कोई फिल्म हीरोईन बनने का सोचा, न किसी टीवी का एंकर..जहाँ खूबसूरती मायने रखती है पर फिर भी ऐसा क्यूं? और आज भी कई लड़कियां जो इस कंपनी में इंटर्न करने आती है वो भी पता नहीं कैसे कुछ दिनों में ही मुझसे सीनियर बन जाती हैं और मैं छह साल से इस कंपनी का हिस्सा होते हुए भी उसी जगह पे किसी तरह टिकी हुई हूँ। लड़कियों की सूरत उन क्षेत्रों में भी इतनी ज़रूरी हो गई है जहाँ सूरत का कोई लेना देना ही नहीं है।

माँ आपको पता है जब हम लोग आज से आठ साल पहले वो शाहिद कपूर की 'विवाह' फ़िल्म देखने गये थे..तब मैं सोचती थी कि कोई ऐसा मेरी ज़िंदगी में भी आयेगा जो मुझे मेरे जज़्बातों के लिये चाहेगा न कि सूरत के लिये। पर ऐसा कुछ सच्चाई में नहीं होता। मेरे जीवन का सबसे सुनहरा दौर बस यूं ही गुज़र गया। मुझे समझ नहीं आता मेरे सुंदर न होने में मेरा क्या दोष...इंसान पैदा होने के बाद अपनी मेहनत से जिस काबिलियत और सद्गुणों से खुद को विकसित कर सकता है वो सब तो मैंने किया न..पर सूरत पे तो मेरा वश नहीं चल सकता। और जब भगवान को मुझे ऐसा बदसूरत बनाना ही था तो मेरे जज़्बातों को भी धुंधला कर देते...उन सारी तमन्नाओं को भी बेरंग कर देते..जो एक लड़की में होती हैै। लेकिन नहीं उन्होंने सिर्फ लड़कियों वाली तथाकथित खूबसूरती मुझे नहीं दी पर हर अहसास तो मुझमें भी वही हैं।

अब मैं थक चुकी हूँ माँ...अब मैं और आप लोगों को परेशान नहीं कर सकती...बस इसलिये मैंने फैंसला कर लिया है...ये सब ख़त्म करने का। अरे न..न..आप गलत सोच रही हैं इतना घबराने की ज़रूरत नहीं है आप लोगों के संस्कार मुझे कभी कोई गलत कदम नहीं उठाने देंगे..और खुद को ख़त्म करने का तो मैं सोच भी नहीं सकती। अब क़त्ल होगा उन जज़्बातों का जो एक लड़की को सौंदर्य की चाहत के अलावा और कुछ  देखने नहीं  देते...अब क़त्ल होगा उस चाहत का जिसके चलते लड़की अपना वजूद किसी मर्द के संग होने में तलाशती है। मेरा अस्तित्व खुद से है और अब इस चमड़ी में अपना अस्तित्व तलाशने के बजाय विचारों के उस अनंत आकाश में खुद की हस्ती खोजूंगी...जो इंसान की लौकिक ही नहीं पारलौकिक खूबसूरती को बेहतर बनाती है। माँ! मुझे अब कोई ग़म नहीं अपने ऐसे होने पे..और न किसी से कोई शिकायत है बल्कि मुझे फ़क्र है आप लोगों के दिये उन संस्कारों पे जो औरत को बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक सुंदरता प्रदान करते हैं। और चर्म के मिथ्या उपासक इस समाज से भी मुझे कोई शिकायत नहीं क्योंकि गर मैं इनकी सुंदरता के मायनों पे खरी उतरती तो कभी अपनी वास्तविक सुंदरता को न समझ पाती।

अच्छा है मेरी चमड़ी, गीदड़ों की हवस का शिकार नहीं होगी..और दया, सत्य और वात्सल्य की सौरभ से खुद भी महकूंगी और दुनिया में हालातों की मार झेल रहे हज़ारों को महकाउंगी..और हाँ ये सब बात मैं किसी कुंठा मैं बयाँ नहीं कर रही बल्कि लंबी सोच के बाद हासिल हुए निष्कर्ष का परिणाम हैं मेरे ये विचार। लेकिन अब तक आप लोगों की हसरतों के लिये खुद को खामोश रखा था। मेरी खूबसूरती का पैमाना मैं खुद तय करुंगी, ये दुनिया नहीं। मेरे सौंदर्य पे मांस का लोथड़ा देखने वाला ये जमाना मोहर नहीं लगायेगा...ये पैमाना तो इतिहास तय करेगा कि कौनसी खूबसूरती चिरजीवंत है।

हाँ, माँ! जैसा पापा को लगता है वही सत्य है कि मैं परी हूँ। मेरा बदन ही मेरा वतन नहीं है..और न कोई चित्रकार ही मेरी तस्वीर बना सकता क्योंकि चित्रकारों ने भी जिस्म के परे कब देखा है औरत को। औरत का सच्चा सौंदर्य जिस दिन देख लिया न इन चित्रकारों ने उस रोज़ पूरी चित्रकला ही परिवर्तित हो जायेगी....और मैं तो वैसे भी विश्वसुंदरी हूँ। मेरी खूबसूरती को कैनवास पे उकेर सके, न ऐसी नज़र है कोई और न  ऐसा कोई रंग.............................