Thursday, July 24, 2014

मेरी प्रथम पच्चीसी : आठवीं किस्त

(पिछली किस्त पढ़ने के लिये क्लिक करें- पहली किस्त, दूसरी किस्ततीसरी किस्तचौथी किस्त, पांचवी किस्तछठवी किस्तसातवी किस्त)

(कलम की रेलगाड़ी पे बैठ यादों के सफ़र पे निकले मैंने अपने अतीत के नज़ारों को एक बार फिर जीने की कोशिश की...पर अब भी बहुत कुछ है जो आगे इस सफ़र में आयेगा। अतीत में झांकना कई मर्तबा बड़ा प्रेरक होता है तो कई बार ये आंखें नम भी कर देता है। गुजरे दौर का वो वक्त जिसमें हम रोये थे उसे सोचकर हंसी आती है और जिन लम्हों में हम हंसे थे उन्हें सोचकर रोना आता है पर दोनों ही तरह के लम्हों को याद कर अधूरापन तो सालता ही है क्योंकि ये कसक हमेशा बनी होती है कि अब फिर हम उन लम्हों को नहीं जी पायेंगे। जो बीत गया सो बीत गया...लेकिन यादों और किस्सागोई के जरिये अतीत के पुराने पड़ चुके पन्नों पर से धूल ज़रूर झाड़ी जा सकती है। लेकिन इस ताजगी के लिये एक सच्चे हमदर्द, हमसफ़र की तलाश होती है और उसका मिलना ही शायद सबसे मुश्किल है..और इस मुश्किल घड़ी में कलम ही सच्ची मित्र बनकर सामने आती है और आज के इस सायबर युग में उस मित्र का काम कर रहा है ये चिट्ठाजगत..बस इसीलिये अपनी यादों के इडियट् बॉक्स से कुछ चिट्ठियां निकाल यहां बिखेर रहा हूँ.... )

गतांक से आगे-

दोस्तों का नया हुजूम जुड़ रहा था और पुराने दोस्तों की दिल के आंगन से धीरे-धीरे विदाई हो रही थी। हालांकि विदा हुए कुछ दरख़्त कई मर्तबा रूह में  ऐसे चिपक जाते हैं कि ताउम्र उनकी कचोट हृदय को उद्वेलित करती रहती है। लेकिन उस अर्धपरिपक्व उम्र का कोेई पुराना दरख़्त मेरी रुहानी दहलीज पर न टिक सका। दरअसल  ये मानव स्वभाव है कि 'नज़रों से दूर तो दिल से दूर'। नयी-नयी नज़दिकिया हर बार प्राथमिकताएं बदल देती हैं और ऐसा ही कुछ मेरे साथ था। अपने इस आशियाने के जिन साथियों से ट्युनिंग बैठना थी वो बैठ गई थी और जिनसे नहीं बैठना थी उनसे अनचाहे ही दूरी बनी हुई थी। मेरे बेहद जिद्दी और अहंकारी स्वभाव के कारण दोस्ती कम दुश्मनी ज्यादा होती थी। उस स्वभाव के कुछ छींटे आज भी कायम है और अपनी कमी जानते हुए भी खुद को सुधार पाना बड़ा मुश्किल होता है। बुद्धि, हालातों को समझ सब कुछ सामान्य कर देना चाहती है पर अहंकार चीज़ों को जटिल करता जाता है। इससे पता चलता है कि समस्त ज्ञान और विवेक के लिये अहंकार, रोष और क्रोध जैसे विषाक्त जज़्बात कितने घातक हैं। मुझे अच्छे से याद है कि मेरी कक्षा के कुल 35 विद्यार्थियों में से 16 छात्रों से मैं एक ही समय पर दुश्मनी पाले बैठा था और प्रायः इन सबसे ही मेरी बात नहीं होती थी। कुछ दूरियां तो ऐसी थी कि उस परिसर में पांच साल तक पड़ने के बावजूद मैंने उन लोगों से कभी बात नहीं की। वक्त बीतने के साथ हम ये भूल जाते हैं कि हमने किस वजह से बैर पाला था पर उस बैर से बड़ी हमारेे बीच की दूरी बन जाती है...गलतियों की खाई को भरना बहुत आसान है पर दूरियों की खाई गहराती ही जाती है।

कक्षा बारहवीं बोर्ड परीक्षा होने के वजह से हमें उस हॉस्टल में कुछ विशेष रियायतें मिला करती थी। लेकिन उन आजादियों को हम प्रॉडक्टिव काम करने के बजाय फिजूल के कामों में ज्यादा खर्च करते थे। जैसे धार्मिक कक्षाओं, पूजा-प्रार्थना से हमें छुट्टी दी जाती तो हम शॉपिंग, खेल-कूद या सोने में अपना वक्त ज़ाया करते, बस से हमें कॉलेज के लिये भेजा जाता तो किसी सिनेमाहॉल में फ़िल्में देखने चले जाते। तब ये सब करने में बहुत मजा आता था पर आज सोचते हैं तो लगता है कि उस वक्त का कुछ बेहतर उपयोग किया जा सकता था पर जीवन की कड़वी सच्चाई यही है कि सारी समझदारी वक्त बीतने के बाद ही आती है। ज़िंदगी के उस दौर में गुटबाजी का भी सुरूर छाया रहता था और अपना एक दल बनाकर खुद को तीसमारखां साबित करने की जुगत सवार रहती और उस गुटबाजी में खूब राजनीति होती और दूसरों को नीचा और खुद को ऊंचा दिखाने की कोशिश करते। तत्कालीन स्कूल या हॉस्टल में होने वाली प्रतियोगिताओं में अव्वल आने के लिये साम-दाम-दंड-भेद सबका सहारा लेते और अपनी लकीर लंबी करने के लिये प्रायः दूसरों की लकीर मिटाने से भी मैंने गुरेज़ नहीं किया। प्रतिस्पर्धाएं हमें आगे बढ़ाने के लिये होती है लेकिन हमें पता ही नहीं चलता कि चारित्रिक तौर पर हम कई बार बहुत पीछे चले जाते हैैैै क्योंकि प्रतिस्पर्धा के साथ राजनीति और कूटनीति भी सहज व्यक्तित्व का हिस्सा बनती है और जीवन में राजनीति का प्रवेश होने के बाद नैतिकता बहुत दूर चली जाती है।

प्रतिस्पर्धा का असली चरम क्रिकेट के मैदान पर नज़र आता था। जिसके लिय की जाने वाली तैयारियां और हमारे द्वारा बनाई जाने वाली रणनीतियां कुछ ऐसी हुआ करती थी मानो भारतीय टीम का ओलंपिक में प्रतिनिधित्व करना है। हर वर्ष दिसंबर-जनवरी में हॉस्टल में खेल-कूद प्रतियोगिताओं का आयोजन होता..मुझे याद नहीं आता कि उस समय क्रिकेट टूर्नामेंट जीतने पर हासिल हुई प्रसन्नता जैसी खुशी कभी और मिली हो। 31 दिसंबर 2003 को क्रिकेट कप जीतने के जज़्बात आज भी चेहरे पे मुस्कान और गौरव का संचार कर देते हैं। यकीनन वो  कोई बहुत बड़ा अचीवमेंट नहीं था, जीवन में उसके बाद कई उपलब्धियां आयी पर कोई भी उपलब्धि उस अदनी सी सफलता जैसी खुशी नहीं दे पाई।  अपने हॉस्टल की साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में भी अब कुछ-कुछ रुतबा कायम होता जा रहा था जिससे आत्मविश्वास का संचार भी होने लगा था और जब आत्मविश्वास बढ़ता है तो सब अच्छा लगने लगता है। उस साल बारहवीं की परीक्षा में भी अच्छे खासे प्रतिशत से पास हुआ था तो जिस हॉस्टल की दीवारें पहले काटने दौड़ा करती थी वहीं अब अपने घर से भी प्यारी लगने लगी। उन दोस्तों से अब जज़्बाती गांठ जुड़ चुकी थी। बहुत कुछ सीखते हुए जिंदगी बढ़ रही थी तो बहुत कुछ चूक जाने का मलाल आज भी बना हुआ है। वैसे हम चाहे कितना कुछ भी क्युं न हासिल कर लें..जिंदगी के साथ कुछ 'काश' तो जुड़े ही रहते हैं।

हॉस्टल में सीनियर हो जाने का भी गजब का आनंद रहा करता था और जुनियरों के सामने शेखी बघारने में भी बहुत मजा आता था। इस प्रवृत्ति से मैं भी बहुत अच्छे से ग्रस्त था..और कई झूठी-सच्ची बातों के सहारे खुद को महान् बताने का कोई मौका नहीं छोड़ता था। भाषण, वाद-विवाद जैसी प्रतियोगिताओं में तब अच्छा खासा नाम हो गया था तो दूसरों को ज्ञान देने के बहाने भी मिल गये थे। उम्र के नाजुक दौर में अहंकार बहुत जल्दी दस्तक देता है और मैं तो वैसे ही जरा सी तारीफों से बढ़प्पन के भाव से ग्रस्त हो जाता था..तो जब भी तारीफें होती तो खुद को महान् और दूसरों को तुच्छ देखने की एक बेहद घटिया प्रवृ्त्ति का आविर्भाव अंतस में हो गया था। यदि उम्र बढ़ने के बावजूद भी हम इस प्रवृत्ति से घिरे हुए हैं तो समझ लीजिये हम बड़े हुए ही नहीं है। जीवन में आये कई उतार-चढ़ावों ने कमसकम दूसरों को हीनता से देखने का भाव को तो ख़त्म कर ही दिया। हाँ तारीफों के चलते आने वाला अहंकार का भाव आज भी बहुत हद तक बना हुआ है..इसलिये हमेशा लोगों की तारीफों से दूर भागने की कोशिश करता हूँ ताकि यथार्थ के नजदीक रह सकूं।

तकरीबन उसी साल मतलब उम्र के सोलहवें वर्ष में एक बड़ी धार्मिक सभा में प्रवचन करने का पहली बार मौका मिला था। जो कि हमारे उस हॉस्टल की परंपरा का हिस्सा होता था और हर छात्र उस स्वर्णिम अवसर में अपना सर्वस्व देने की कोशिश करता था। मुझे जब ये अवसर मिला तो लंबी तैयारी के बाद जब मैंने उस सभा में धूम मचाई तो लोगों की तारीफों ने एक बार फिर अभिमान को शिखर पर पहुंचा दिया। इसी तरह की छुटमुट उपलब्धियां इकट्ठी होती हुई नाम तो बड़ा कर रही थी पर दृष्टिकोण में ऊंचाई नहीं आयी थी और संकीर्ण मानसिकता की कई परतें अब भी चढ़ी हुई थी। जिन्हें आगे चलकर धीरे-धीरे ज्ञानार्जन से ही दूर किया जा सका। पूर्वाग्रह और दुराग्रह तो आज भी होगा और वो जाते-जाते ही जाता है क्योंकि सीखना ताउम्र जारी रहता है..लेकिन जज़्बाती और शैक्षिक परिवर्तन का वो एक मोड़ था जिस पर सबसे ज्यादा सीख भी मिली और परिपक्वता भी आई। उसी वर्ष पहली बार बिना किसी गार्जियन के देश के कई बड़े शहरों को घूमने का मौका मिला..जब शिविरों और संगोष्ठियों के लिये हमें वक्ता के तौर पर बाहर भेजा जाता और सफ़र से ज्यादा सीख देने वाली और कोई चीज़ नहीं हो सकती। दिल्ली, शिमला, पूना जैसे कई छोटे-बड़े शहरों को अकेले या दोस्तों के साथ घूमा...मजा भी बहुत आया, डर भी दूर हुआ और स्वावलंबी होने के क्रम मे कुछ सोपान और चढ़े। सबकुछ बड़ा वंडरफुल था..अपनी हॉस्टल लाइफ का विस्तृत वर्णन मैंने एक अन्य ब्लॉग पर स्मारक रोमांस और पिंकिश डे इन पिंक सिटी नामक श्रंख्ला में कर चुका हूँ इसलिये यहाँ ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा।

बहरहाल, जीवन का सोलहवां बसंत पार हो रहा था और अब कुछ नटखट और नादान अहसासों का भी ज़िंदगी में प्रवेश हो रहा था। समझदारी के साथ अय्याशी की चाहत भी बढ़ रही थी। एक तरफ संस्कार थे तो दूसरी तरफ मनचले मन की कश्मकस...दोनों का खूब संघर्ष हुआ और इस संघर्ष के कारण जिंदगी के अगले हिस्से मजेदार और जीवंत बने। रुकता हूँ अभी..उन पलों के साथ फिर लौटूंगा.................

1 comment:

  1. बहुत बढ़िया। आप तो तब भी नादान आयु में संभल गए इसलिए अब परिपक्‍वता का प्रसाद कुछ हद तक पा ही चुके हैं।

    ReplyDelete

इस ब्लॉग पे पड़ी हुई किसी सामग्री ने आपके जज़्बातों या विचारों के सुकून में कुछ ख़लल डाली हो या उन्हें अनावश्यक मचलने पर मजबूर किया हो तो मुझे उससे वाकिफ़ ज़रूर करायें...मुझसे सहमत या असहमत होने का आपको पूरा हक़ है.....आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए ऑक्सीजन की तरह हैं-