Monday, December 31, 2012

देखते ही देखते.....

उलझनें बनी हुई, फासले भी जस की तस
मंजिलों को छोड़, आगे रास्ता है बढ़ गया।
देखते ही देखते ये साल भी गुज़र गया......

  

चल रही है श्वांस, किंतु जिंदगी थमी हुई
रूह की दीवार पर, धूल है जमी हुई।
दाग गहरा छोड़के, देखो! ज़ख्म भर गया।।
देखते ही देखते.....

   


रंजिशों की मार से, जाने क्या है हो गया
मिल गया जवाब पर, सवाल ही है खो गया।
वक्त को आगे बढ़ा, वो पल वहीं ठहर गया।।
देखते ही देखते......




हो रहा है मिलन, पर बढ़ रहे शिकवे गिले
चीख सन्नाटों की है, सूनी पड़ी पर महफिलें।
ख्वाहिशों का दफन, देखने सारा शहर गया।।
देखते ही देखते.....




 होंठ पे मुस्कान है, पर आंख में आंसू भरे
मौत की आहट से ये, मासूम दिल क्युं न डरे?
झोपड़ी खड़ी रही और महल बिखर गया।।
देखते ही देखते....



 दिल की दुनिया ढूंढने में, खुद को हम खोने लगे
परम्परा के नाम पर, रुढियां ढोने लगे।
मर्ज़ की दवा थी वो, पर रग़ों में ज़हर गया।।
देखते ही देखते.....




रास्तों को खोजता, जाने क्या-क्या सोचता, हूं मैं वही खड़ा हुआ
ज़ख्म सीने में लिए, गिरते संभलते हुए, मजबूरी में पड़ा हुआ।
इस भोर में सूरज निकल, इक दिन का क़त्ल कर गया।।
देखते ही देखते ये साल भी गुज़र गया...........
मंजिलों को छोड़, आगे रास्ता है बढ़ गया
देखते ही देखते.......


अंकुर 'अंश'

Saturday, December 29, 2012

हे पुरुष ! ये घोर आत्ममंथन का वक्त है....

आखिरकार 13 दिन की तीव्र मानसिक एवं शारीरिक वेदना ने जबाब दे दिया...दामिनी नहीं रही। इस दामिनी ने लोकतंत्र के चारों स्तंभ को हिला डाला...देश की विधायिका नये कानून लाने के वैचारिक विद्रोह में है, कार्यपालिका देश की लाखों बेवश दामिनीयों को सुरक्षा देने के संकल्प पर पॉलिश कर रही है, न्यायपालिका आरोपियों का सजा सुनाने और दामिनी के न्यायिक मंथन से गुज़र रही है और मीडिया इस एक दामिनी के दमन की हवा में हजारों दामिनीयों की लुटती अस्मिता की अपडेट दे रहा है...ये एक दिल्ली की दामिनी, हजारों दमन की शिकार देश की नारियों का पर्याय बन गई है...गोयाकि आज दामिनी एक नारी नहीं, हालात बन गई है।

ये देश का पहला केस नहीं था और हमारे देश का सौभाग्य अभी इतना भी नहीं जागा कि ये आखिरी केस बन जाए। 'हर चौबीस मिनट में एक बलात्कार' का ये आंकड़ा थोड़ा बेहतर हो सकता है और शायद 'चौबीस मिनट' बदलकर 'अड़तालीस मिनट' बन सकते हैं...और शायद ये आंकड़ा भी ठीक नहीं हो सकेगा क्योंकि कुल होने वाले बलात्कारों में से 95 प्रतिशत तो दरो-दीवारों के अंदर होते हैं...बलात्कार रोकने के लिए सड़कों पे पुलिस तैनात की जा सकती है घरों में नहीं। रास्तों पे घूमने वाले लंपट मनचलों से सतर्क रहा जा सकता है..पर पिता, चाचा, मौसा, मामा, दोस्त-भाई, पड़ोसी, बॉस और यहां तक की अध्यापकों पर कैसे शक करें..उनसे कैसे सतर्क रहे? भेड़ियों की बस्ती में इंसान ही नज़र नहीं आते तो रिश्तेदार भला कहां मिलेंगे।

दामिनी के निमित्त से तंत्र को सुधारने का आंदोलन चल रहा है...सरकार को नसीहत दी जा रही है...पर प्रश्न उठता है कि ये तंत्र, ये सरकार क्या उन बलात्कारों, उत्पीड़नों को रोक पाएंगे जो दुनिया के सामने ही नहीं आते। यकीनन इस आंदोलन का कुछ सकारात्मक असर पड़ेगा पर वो असर सार्वकालिक समाधान बनकर सामने नहीं आ सकता...और वैसे भी दामिनी की चिता ठंडी पड़ने से पहले ये आंदोलन ठंडा पड़ जाएगा। समस्या की जड़ में जाकर ही समाधान तलाशा जा सकता है और इस बहसी प्रवृत्ति की जड़ें बहुत गहरी हैं...जिन जड़ों की खुदाई ये तंत्र, ये सरकार या मीडिया को नहीं बल्कि हर पुरुष को व्यक्तिगत तौर पर करनी हैं...ये समस्त पुरुष समाज के लिए गहन आत्ममंथन की घड़ी है।

हिन्दी के उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की एक पंक्ति है कि 'जब किसी पुरुष में कुछ महिला के गुण आ जाते हैं तो वो महात्मा बन जाता है और किसी महिला में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वो कुलटा बन जाती है'...पुरुष को अपने उन्हीं आदिम पाशविक गुणों, मान्यताओं, अवधारणाओं, वैचारिक अहम् एवं समाज में व्याप्त पौरुषीय पितृसत्तात्मक सोच की पड़ताल करनी है जिसके चलते आज भी नारी समाज में दूसरी पंक्ति की हस्ती बनी हुई है। जिसे स्वयं के अस्तित्व के लिए, खुद को पूरा करने के लिए, स्वयं के संरक्षण के लिए किसी न किसी पुरुष की आवश्यकता है..उसकी इस ज़रूरत को कभी पिता, कभी भाई, पति, ब्वॉयफ्रेंड या फिर उसका अपना पुत्र पूरा करता है। ये सामाजिक असमानता जब तक विद्यमान है तब तक महिला उत्पीड़न, बलात्कार जैसी दुर्दांत घटनाओं पर ब्रेक लगा पाना बहुत मुश्किल है।

हमारे धर्मग्रंथों, पुरातन परम्पराओं, उपन्यासों, कविता, कहानियों और संस्कृति के हर हिस्से ने नारी को निरीह, करुणापात्र और असहाय साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और पुरुष को उसका स्वामी बनाकर, वर्चस्व के सारे अधिकार प्रदान कर दिए। "हाय नारी तेरी बस यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी" हमारे बुद्धिजीवियों ने नारी की आंखों और आंचल से परे उसे देखने की हिमाकत ही नहीं की..और नारी को देख उसकी बेवशी ही पुरुष को नज़र आई...और फिर इन महाशयों ने उसे संरक्षण देने के बहाने हर तरह से नारी का शोषण किया। परंपराओं के ऐसे बज़न उन पर लाद दिए गए जिनके बोझ तले वह प्रताड़ित होती रही...और इन प्रताड़नाओं को ज़रुरी साबित करने में भी इस समाज ने कोई कसर नहीं छोड़ी..."ढोर-गंवार-शूद्र-पशु-नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी" जैसी उक्तियों से ताड़ना को नारी का अधिकार बना दिया। दरअसल प्राकृतिक तौर पर नारी शारीरिक स्तर पर पुरुष से अधिक सबल है और पुरुष ने अपनी ये कमतरी छुपाने के लिए भांत-भांत के मानसिक-शारीरिक बंधनों और ताड़नाओं के ज़रिए खुद को इस बृह्माण्ड में श्रेष्ठ बना रखा है। पर मौका मिलते ही पुरुष का ये श्रेष्ठता का चोगा जाने कहां उड़ जाता है और वो अपने मूल स्वरूप में लौट आता है। इन परंपराओं और मान्यताओं का रस कुछ इस तरह से पुरुष ने इस समाज में घोला है कि नारी इन्हें अपने सिर-आंखों पे बैठाती है और अपनी ताड़नाओं को स्त्रीधर्म मान बैठी है।

इस पुरुष आत्ममंथन के वक्त में नारी को भी अपना वैचारिक आत्ममंथन करना होगा कि उसका अस्तित्व पुरुष की भोग्या बनने और बच्चा पैदा करने से परे भी बहुत कुछ है। वह अपने आप में एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है जिसके बिना इस धरती का, इस प्रकृति का संतुलन कभी बना नहीं रह सकता। उन तमाम सामाजिक विसंगतियों का बहिष्कार करना होगा जिनके चलते स्त्री इस समाज की दोयम दर्जे की हस्ती बनी हुई है...और अगर उन विसंगतियों के खिलाफ स्त्री ने आवाज बुलंद की तो मजाल है कि इस देश में भ्रूण-हत्या, दहेजप्रथा और घरेलु हिंसा जैसे अपराध सामने आये क्योंकि इन तमाम अपराधों में महिला की अहम् हिस्सेदारी होती है..अब वह चाहे मन से हो या बेमन से। अपने इस स्वतंत्र अस्तित्व को पहचानकर, सभी तरह के सामाजिक अत्याचारों के खिलाफ अपना स्वर मुखर कर...गर स्त्री, स्त्री बनी रहे तो इस प्रकृति की फ़िजा को बदलने से कोई नहीं रोक सकता। बस, वह याद रखे कि उसे अपने सशक्तिकरण के लिए कतई पुरुष बनने की ज़रुरत नहीं है, उसे अपने शील को मर्द की भांति दो टके का बनाने की कोई ज़रुरत नहीं है क्योंकि वो अपने आप में एक सुंदर व्यक्तित्व है जो पुरुष से कई बेहतर है। दामिनी की मृत्यु आंदोलन से ज्यादा, आत्ममंथन की मांग कर रही है.............

Tuesday, December 25, 2012

ताबड़तोड़ करियर का एक ख़ामोश अंत

"जब सचिन बेटिंग कर रहे हों, तब आप अपने सारे गुनाह कबूलकर लीजिये, क्योंकि तब भगवान भी उनकी बेटिंग देखने में मस्त रहते हैं" ये स्लोगन आस्ट्रेलिया में हुए एक मैच के दौरान सचिन के लिए एक पोस्टर पर देखने को मिला था। सचिन के अभिनन्दन में इस तरह की अतिश्योक्ति परक बातें आज से नहीं कही जा रही। इनका सिलसिला बहुत पुराना है, ये बातें दरअसल अपनी भावनाओं के सैलाब कों व्यक्त करने का एक जरिया है। लेकिन फिर भी हम हमारी भावनाएं उस ढंग से ज़ाहिर नहीं कर पाते जिस ढंग से उन्हें महसूस करते हैं। कई बार खुद पे गुमान होता है की हम उस काल में पैदा हुए जब सचिन खेला करते थे, आने वाली पीढ़ियों कों हम बड़े चटकारे लेकर सचिन की दास्ताँ सुनायेंगे।

463 मैच, 18000 से ज्यादा रन, 49 शतक-96 अर्धशतक जैसे विशाल, ताबड़तोड़ एकदिवसीय करियर का अंत इतना ख़ामोशी से होगा इसका अंदाजा किसी को नहीं था...एक तो देश इस समय किसी और मुद्दे पर आक्रोशित है ऊपर से गुजरात में मोदी की माया ने सचिन के इस फैसले को तमाम सुर्खियों से परे बड़ा ठंडा बना दिया। लगता था कि जब सचिन रिटायर होंगे तो खिलाड़ियों के कंधे पर बैठकर सारे मैदान का चक्कर लगाते हुए तालियों के जबरदस्त शोर के बीच उनकी विदाई होगी पर क्रिकेट के इस शिखरपुरुष ने बड़ी ख़ामोशी से इस खेल को अलविदा कह दिया। जिसे न दर्शकों की तालियां मिली और नाहीं मीडिया की सुर्खिया। हो सकता है मैदान के शेर इस खिलाड़ी का अंतर्मन बेहद नाजुक हो और जमाने के सामने अपने प्यार से विदाई लेते वक्त ये अपनी भावनाओं पर काबू न कर पाए...जिसकी एक बानगी हमने 2011 वर्ल्डकप के फाइनल में देखी थी।

 ऐसा नहीं कि सचिन के रिकोर्ड को कोई छू नहीं पायेगा, ऐसा नहीं क्रिकेट में सचिन की पारियों से बेहतर पारियां देखने नहीं मिलेंगी, सचिन की महानता को सिर्फ उनकी क्रिकेटीय पारियों या रिकॉर्डों से नहीं तौला जा सकता। सचिन को महान बनाता है उनका व्यक्तित्व..जिसमें शामिल है क्रिकेट के प्रति समर्पण, प्रदर्शन में निरंतरता, धैर्य और अनुशासन। 23 साल तक क्रिकेट के सभी फॉरमेट में खुद को बेहतर बनाये रखना किसी के लिए भी आसान काम नहीं है...ये सिर्फ आपके क्रिकेटीय कौशल से संभव नहीं हो सकता..इसके लिए ज़रुरी है कुछ आंतरिक गुणों का होना। जो सचिन के व्यक्तित्व का एक अहम् हिस्सा है..जिसके चलते आज वे इस खेल की चोटी पर विराजमान है..और ख़ास तौर से वनडे क्रिकेट के तो लगभग तमाम कीर्तिमान उनकी झोली में हैं।

सचिन देश के उन सम्मानीय लोगों में से हैं जिनका देश कि हर छोटी-बढ़ी शक्सियत सम्मान करती है। इसका कारण ये नहीं कि वे एक अच्छे खिलाड़ी हैं इसका कारण है कि वे एक अच्छे इन्सान है। इन्सान को महान उसकी प्रतिभा बनाती है मगर उसका चरित्र उसे महान बनाये रखता है। सचिन के पास चरित्र कि पूंजी भी है। वे संयमित हैं, मर्यादित हैं और विनम्र है। यही कारण है कि अमिताभ बच्चन, लता मंगेशकर, आमिर खान से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, अब्दुल कलाम तक उनका सम्मान करते हैं। युवराज सिंह अपने मोबाइल में सचिन का मोबाइल नम्बर 'गॉड' के नाम से सेव करते हैं।

सचिन की बल्लेबाज़ी देश के हर इन्सान को एक कर देती है, वो अपना हर दर्द भूलकर बस उनके खेल के जश्न में मस्त हो जाता हैं। सचिन की इस महानता के बावजूद उन पर कई बार ऊँगली उठी है और हर बार उन्होंने इसका जवाब अपने मुंह से देने के बजाय अपने खेल से दिया है। लेकिन इस बार खेल के इस भगवान का धैर्य जबाब दे गया..और उन्होंने अपनी आलोचनाओं के चलते बड़ी ख़ामोशी से इस खेल के एकदिवसीय संस्करण से अलविदा कह दिया...वे जानते हैं कि दुनिया भले उन्हें भगवान कहे पर वे एक इंसान है जिसकी अपनी कुछ सीमाएं होती हैं। चालीस वर्ष की इस उम्र में वो चौबीस जैसी स्फूर्ति और तकनीक नहीं ला सकते। उन्होंने कहा था कि वे सीरीज़ दर सीरिज़ अपने खेल का आकलन करेंगे और अब शायद उन्हें लगने लगा हो कि उनमें वनडे क्रिकेट के योग्य तेजी नहीं रही...इसलिए हमारे लिए सचिन का ये फैसला चौकाने वाला रहा हो पर उनके लिए तो ये एक सोची-समझी रणनीति ही है।

बहरहाल, क्रिकेट के इस जादूगर के खेल कौशल अब हम टेस्ट क्रिकेट में देखेंगे...लेकिन कब तक? ये बता पाना आसान नहीं है...क्योंकि सचिन ही जानते हैं कि उन्हें अपने आगे के करियर को किस तरह से दिशा देनी है और कब उसपे विराम लगाना है। हो सकता है कि उनके इस फैसले की तरह उनके टेस्ट करियर को अलविदा कहने का फैसला भी चकित करने वाला साबित हो...क्योंकि सचिन उन लोगों में से नहीं जो अपने व्यक्तिगत मोह के चलते टीम में बोझ बने रहे..टीम और देशहित हमेशा उनके लिए सर्वोपरि रहेगा। अंत में शारजाह में हुए एक मेच के पोस्टर पे लिखा स्लोगन याद करना चाहूँगा "जब मैं मरूँगा तब भगवान को देखूंगा तब तक मैं सचिन को खेलते हुए देखूंगा"......

Friday, December 21, 2012

बिखरता आत्मनियमन, टूटती यौनवर्जनाएं और दिल्ली गैंगरेप

सारा देश इन दिनों दिल्ली गैंगरेप में पीड़ित लड़की के स्वास्थ्य के लिए दुआ कर रहा है..और अपराधियों को कड़ी सजा की मांग कर रहा है। साथ ही इस बात का राग आलापा जा रहा है कि इन अपराधियों को दी जाने वाली कड़ी सजा से ऐसे अपराधों पर रोक लगेगी या इनमें कमी आएगी। लेकिन क्या वास्तव में किसी सजा का डर ही आपराधिक प्रवृत्ति के सफाये के लिए काफी है? मैं अपराधियों के बचाव का या उन्हें किसी तरह की रियायत दिए जाने की वकालत नहीं कर रहा हूं, उन्हें उनके किए का संविधान सम्मत योग्य परिणाम मिलना चाहिए...मैं यहां पापियों की नहीं पाप की बात करना चाहता हूं।

दिल्ली गैंगरेप की वारदात के बाद जस्टिस काटजू का विवादित पर चिंतनीय बयान आया था कि 'गैंगरेप तो आम बात है, दिल्ली गैंगरेप पे ज़रूरत से ज्यादा हायतौबा मचाने की क्या ज़रूरत है'। यकीनन आज के हमारे सामाजिक परिदृश्य की बुनावट ही कुछ ऐसी है कि जहां प्रचारतंत्र के ज़रिए, किसी मामुली से मुद्दे पर भी सारी भीड़ को भड़काया जा सकता है और कई बार संगीन अपराध पर भी चुप्पी साध के उसे युंही गुज़र देने दिया जा सकता है। मैं इस गैंगरेप को मामूली कतई नहीं कह रहा हूं सिर्फ सामाजिक प्रवृत्ति की बात कर रहा हूं...और यदि किसी महत्तवपूर्ण मुद्दे पर आंदोलन होते भी है तो वे भी प्रचारतंत्र के ठंडे होने के बाद सुप्तावस्था में चले जाते हैं...फिर भीड़ को इंतज़ार होता है अगले किसी आंदोलन का। दरअसल समाज में आंदोलन की प्रवृत्ति भी उत्सव की तरह ही है...उत्सव जितने ही आंदोलन आवश्यक है। आंदोलनों लायक मुद्दे मिलने पर तथाकथित सामाजिक संगठन अपने जिंदा होने का सबूत दे देते हैं, नेता लोग खुदको इस देश और समाज के शुभचिंतक साबित करने वाले बयान झाड़ देते हैं और प्रबुद्ध वर्ग अपने बौद्धिक बवासीर का परिचय दे देता है...लेकिन अपराध, अपराधी और पीड़ित की स्थिति में कोई परिवर्तन आता हो, ऐसा कहीं नज़र आता।

इस मुल्क में हर चीज़ दो हिस्सों में बंटी है और उस बंटवारे से पैदा हुई खाई बहुत गहरी है...ऐसे ही जिंदगियों के दरमियां भी गहरा फासला है और उन जिंदगियों का ट्रीटमेंट भी अलग-अलग ढंग से किया जाता है। दिल्ली में हुए गैंगरेप जैसी वारदातें छोटे गांव-नगरों में आए दिन होती रहती हैं...कई बार वे अखबार की सनसनात्मक प्रकृति की शोभा बढ़ाते हैं तो कई बार ऐसी घटनाएं घर-परिवार के लोगों द्वारा ही दबा दी जाती है। शायद ऐसा सिर्फ हमारे देश में होता है कि बलात्कार की घटना के बाद अपराधी से ज्यादा पीड़ित की इज्जत खराब होती है। अपराधियों के बदन पे चढ़ी धूल वक्त के हाथों द्वारा झड़ा दी जाती है पर पीड़ित के जिस्म और आत्मा पे लगी कालिख को न ये समाज मिटा पाता है और नाहीं पीड़ित खुद इसे भुला पाती है। दिल्ली गैंगरेप की संगीनता प्राकृतिक तौर पर नहीं, मीडिया द्बारा तय की गई है। हर साल होने वाले इस तरह के हजारों मामले भी इतने ही संगीन है, जोकि खामोशियों के साये में कहीं दब जाते हैं।

दरअसल, बात सिर्फ इस गैंगरेप की नहीं है...बात हैं उन तमाम टूटती वर्जनाओं की जो ऐसे अपराधों को बढ़ा रहे हैं, बात है उन तमाम बहसी प्रवृतियों की, बिखरते आत्म-संयम की जिसके चलते इंसान सिर्फ अपनी इच्छाओं को तवज़्जो देता है और भूल जाता है दूसरे के हितों को, उनकी भावनाओं को। क्यों बार-बार सिर्फ महिलाओं को ये समझाइश दी जाती है कि वे सादगी पूर्ण कपड़े पहने, रात को घर से बाहर न निकलें, अनजाने लोगों से दूर रहे, पुरुषों से दोस्ती न करें...ये समाज अपनी इस समझाइश का कुछ हिस्सा पुरुषों पर क्युं नहीं खर्च करता..जबकि ये तय है कि हवस से भरा मन रजाई ओढ़ के बैठी महिला को भी वैसे ही देखेगा जैसे वो किसी स्कर्ट पहनी युवती को देखता है। फ़िल्म 'पिंजर' में एक संवाद है कि 'कैसे महज़ एक मांस का लोथड़ा इंसान के सारे विवेक को नष्ट कर देता है'...यही कारण है कि साल-डेढ़ साल की बच्ची,  किसी 60-65 साल की वृद्धा,  मानसिक विकलांग महिला, फुटपाथ पे सोई किसी फटेहाल-मजबूर औरत के साथ ऐसी वारदातें होती है...अब इन सारी आपराधिक वृत्तियों के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराएं। औरत को पुरुषों के समकक्ष लाने वाले बुद्धिजीवी इस बात पर विचार करें कि क्या वाकई वे पुरुषों और औरतों को एक जमीन पर देखना चाहते हैं।

हकीकत तो यही है कि स्त्री बस एक आइटम है...जिसे फ़िल्मों में मसाला डालने के लिए किसी आइटम नंबर में पेश किया जाता है, बाजार में उससे विज्ञापनों के ज़रिए बिकनी पहनाकर सीमेंट और ऑयलपेंट जैसे उत्पाद बिकवाये जाते हैं, उसके मुस्काते चेहरे के ज़रिए उपभोक्ता को मॉल और शापिंग कॉम्पलेक्स में रिझाया जाता है, कढ़ाई-बुनाई और पाककला जैसे कामों में उसे पारंगत बनाकर पुरुष की सेवा योग्य तैयार किया जाता है, उसके जिस्म का प्रयोग पुरुष की जिस्मानी भूख को ठंडा करने के लिए होता है चाहे नारी स्वयं अपने समर्पण से उत्पन्न संतुष्टि का अनुभव न कर सके पर उसका मौन रहना ही संस्कार है...इन सबमें नारी क्या है महज आइटम, मनोरंजन का साधन, एक बेजान वस्तु...और जब वो एक वस्तु ही है तो फिर उसे पुरुष के समकक्ष लाने के झूठे प्रयास क्यों किए जाते हैं...क्योंकि जनाब! पुरुष तो एक इंसान है न...और वस्तुओं की इंसान से क्या तुलना।

बहरहाल, अच्छा है कि एक नदी को नदी ही रहने दिया जाए और एक स्त्री को स्त्री...जब तक नदी किनारों के बीच और स्त्री अपने दायरों के बीच बह रही है तब तक वो वही हैं जो वो हैं..जिस दिन नदी ने अपने किनारे और स्त्री ने अपने दायरे छोड़ दिए तब कहर आने में समय नहीं लगेगा...पर ये इंसान, ये समाज, ये व्यवस्था स्त्री को और प्रकृति को मजबूर कर रही है कि कहर आए....नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी कुछ हद तक को सही साबित हुई ही है कि 21 दिसम्बर 2012 तक भले इंसान तबाही से बचा हुआ है पर इंसानियत तो तबाह हो ही चुकी है..........

Thursday, December 13, 2012

मुर्दा इंसानों की भीड़ में गुमनाम ज़िंदगी !!!

अखबार। इन दिनों दुनिया की सबसे खतरनाक वस्तु जान पड़ता है...जो दिल में एक चुभन सी पैदा करता है और घोर निराशावाद की ओर धकेलता नज़र आता है। ये मैं तब कह रहा हूं जबकि मैं विधिवत् जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक उपाधि ग्रहण कर..लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में किसी न किसी तरह अपनी सहभागिता निभा रहा हूं। लेकिन आये दिन अखबार के पन्नों पर प्रकाशित होने वाली ख़बरें दिल बहुत छोटा कर देती हैं, साथ ही मुझे खुद से ये प्रश्न करने पर मजबूर कर देती हैं कि मैं किस भीड़ का हिस्सा हूं और किस दुनिया में सांसे ले रहा हूं?

मैं यहां फिलहाल भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कालाबाज़ारी, महंगाई, गरीबी जैसे देशव्यापी मुद्दों की बात नहीं कर रहा हूं...बल्कि मेरा इशारा तो उन टूटती संवेदनाओं, बिखरते रिश्ते और मुर्दा भावनाओं की तरफ है जिन संवेदनाओं, भावनाओं और रिश्ते-नातों के कारण हम इंसान कहलाते हैं। मेरा इशारा अखबार की उन ख़बरों की तरफ है जो अक्सर फ्रंट पेज पर नहीं नज़र आती..पर जो ख़बरें तीसरे, पांचवे, सातवें या पंद्रहवे पेज पर ख़ामोशी से सिसक रही होती है। हर दिन उत्साह से अखबार को उठाने वाले हाथ, उदास मन से उसे फेंक देते हैं और माथे पर सलवटें लिए हुए लवों से यही लफ़्ज निकलते हैं-'क्या हो गया है इंसान को'।

दिल को इंडियन क्रिकेट टीम की जीत की ख़बर से मिली खुशी या शेयर मार्केट की छलांग से मिली राहत बड़ी तुच्छ नज़र आती है...जब नज़रें उन ख़बरों पर जाती है जहां किसी नवजात शिशु के कूड़ेदान में पड़े होने की, पिता द्वारा अपनी बेटी के बलात्कार की, भाई-भाई के खूनी युद्ध की, अपनी प्रेमिका पर तेजाब डाले जाने की या अध्यापक द्वारा छात्र का सिर दीवार से दे मारने की बात होती है। दिल में ख्याल आता है कि जिस संवेदना, ज्ञान और विवेक के कारण इंसान को इस प्रकृति के अन्य प्राणियों से अलग और उत्कृष्ट माना जाता है वे सब कहां हैं? अपने दिमाग और शिक्षा के ज़रिए इंसान ने कहीं न कहीं अपनी आकांक्षा, इच्छा, भोगलिप्सा, स्वार्थपरकता और लोलुपता को ही बढ़ाया है। यदि इंसान के पास ज्ञान या संवेदना है भी..तो वह भी रोबोटनुमा ज्ञान-संवेदना है। इंसान को इंसान बनाने वाली ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान कहीं भी नज़र नहीं आता। मुर्दा शरीरों में दिल धड़क तो रहा है पर वे जिंदा नहीं है।

सभ्यता और संस्कृति की बड़ी-बड़ी बातें महज ढकोसला लगती है...इंसान की हवस तो आज भी पशुमय है। यदा-कदा निखरकर आने वाली इंसान की दुर्दांत प्रवृत्तियां ये बताने के लिए काफी है कि आदमी..आदमी नहीं, वह तो मूलरूप से पशु है। शिक्षा-सभ्यता के ज़रिए वह अपनी पशुता पर महज़ मुखौटे लगाने का प्रयास करता है। वासना और तृष्णा का ऐसा कॉकटेल इंसान के हृदय में पड़ा है जहां अपने आनंद और संतुष्टि के लिए वह किसी भी दूसरे इंसान के कलेजे पर से गुज़र सकता है। इस सबमें इंसान कहां है और कहां है जिंदगी?

यदि संवेदना, प्रेम और रिश्तों की गर्माहट हो तो संसाधनों के अभाव में भी बखूब जिंदगी बसर की जा सकती है..पर जिस दुनिया में हर कोई अपनी पीठ के पीछे छुरा लेके चलता हो वहां कैसे जीवन गुजरेगा? जहां अपने रिश्ते-नातों से ही डर हो वह इंसान कहां आसरा तलाशेगा? और जब इतना भयावह माहौल हमने अपने ईर्द-गिर्द बना रखा है तो हमें क्या हक बनता है कि हम नयी पीढ़ी को इस दुनिया में लाए। जब इंसानों की इस भीड़ में अभी एक खूबसूरत जिंदगी का निर्माण हम नहीं कर पा रहे हैं तो आने वाली ज़िंदगी आखिर किन हालातों के साथ जिंदा रहेगी? 

ये सारे वे सवाल है जो दिल में उमड़-घुमड़ कर मुझे खुलकर मुस्कुराने से रोक देते हैं।  इन हालातों को गौढ़ कर हम अपनी ही दुनिया में स्वछंद बन मस्त रह सकते हैं लेकिन समष्टि का एक अहम् हिस्सा होने के चलते इन हालातों को गौढ़ कर देना इंसानियत तो नहीं हो सकती। व्यष्टि(व्यक्ति) का अस्तित्व समष्टि(समाज) से हैं और अपनी समष्टि के प्रति आंखें बंद कर  कृतघ्न हो जाने की इज़ाजत ये दिल नहीं देता। दिल बहलाने के लिए अक्सर सामाजिक यथार्थ से लबरेज़ समाचारों से दूर हो..सास-बहू के उबाऊ सीरियल, फूहड़ कॉमेडी शो, स्पोर्टस चैनल और अजीबोगरीब भूतहा-सस्पेंस कहानियों को देखने-पढ़ने का प्रयास करता हूं...पर मेरी ज्ञानात्मक संवेदना मुझे वापस सामाजिक यथार्थ के करीब ले जाती है।